थोड़ा चलते हैं,
गीले रास्तों पर
थोड़ा फिसलते हैं|
कोरी धुप में
थोड़ी बारीश होती है,
घने सन्नाटे में
एक गूँज खोती है|
अँधेरे में आती हुई
रौशनी खलती है,
चाँद की गर्मी में
रात जलती है|
सुबह सवेरे
सूरज ढल जाता है,
रोते आसुंओं से
दिल बेहेल जाता है |
बेहती हवा को
पत्ते रोक लेते हैं,
पेड़ से पानी,
मिटटी सोख लेते हैं|
बेहता खून
धड़कन रोक लेता है,
मुंह खुलती है
पर जुबान कहाँ कुछ कहता है|
सब कुछ तो बेजान है
फिर भी जीने की कोशिश करते हैं,
दो थके हुए पांव
फिर थोड़ा चलते हैं||